घर के आँगन में अक्सर सन्नाटा पसरा रहता था। दीवारें ऊँची थीं, लेकिन उनके भीतर कोई अपनापन महसूस नहीं होता था। सुबह उठते ही डाँट-फटकार सुननी पड़ती, कभी पढ़ाई को लेकर, कभी छोटी-छोटी गलतियों को लेकर। खाने की मेज़ पर बैठते समय भी बातचीत नहीं, बस चुप्पी और ताने। किताबें खोलकर सामने रखी रहतीं, लेकिन मन उनमें रमा ही नहीं रहता। दिल भीतर ही भीतर किसी सहारे की तलाश करता।हर दिन यह एहसास और गहरा होता गया कि घर में बातें तो होती हैं, पर उनमें स्नेह की मिठास नहीं है। मन चाहता कि कोई हो, जो पूछे – "कैसे