रात के ग्यारह बजे थे। आकाश चमकीले तारों से भरा हुआ था। चाँद इस तरह चमक रहा था मानो पूर्णिमा की रात में दूसरा सूरज ही निकल आया हो। चारों ओर ऐसा सन्नाटे की नुकीली सुई कानों में चुभ रही हो।पार्क में एक खंभे के नीचे, जहाँ बल्ब जल रहा था, सीमेंट की बनी एक छोटी-सी बेंच रखी थी। उसी पर काले ओवरकोट में सिर झुकाए एक युवक बैठा था। उसके पास ही उसका बैग रखा था। वह कोई और नहीं बल्कि ऋषि था—जो दो दिन पहले ही अपने घर से भाग निकला था।“लगता है आज भी मुझे भूखे पेट