वक़्त का खेल.बरसात की रात थी। आसमान कड़क रही बिजली से गूँज रहा था, और मिट्टी की झोपड़ी की टूटी छत से पानी टपक रहा था। उसी छत के नीचे बैठी नेहा अपने पुराने कंबल में लिपटकर पढ़ाई कर रही थी। सामने जलती टिमटिमाती लालटेन उसकी किताब के पन्नों पर मुश्किल से रोशनी फैला रही थी। पास में बिस्तर पर लेटे उसके पिता रामलाल बार-बार खाँसते और दर्द से कराहते। एक हादसे ने उनकी कमर छीन ली थी, और अब वे घर के लिए कुछ नहीं कर सकते थे। रोज़ी-रोटी का सारा बोझ उसकी माँ सावित्री देवी के कंधों पर