“कौन हो सकता है?” दरवाज़े की घंटी सुन कर हम दोनों चौंके। शोध छात्रों के लिए आरक्षित इस परिसर में वह हमारी पहली रात थी। “आप?” दरवाज़ा खुलने की आवाज़ के साथ सौरभ की हैरानी भी चली आई। अब मुझे भी अपनी रज़ाई छोड़नी पड़ी। दरवाज़े पर मंजू वशिष्ठ खड़ी थी। अपने रात के कपड़ों में। दिसंबर की उस सर्दी में कांपती- ठिठुरती। “क्या मैं अंदर आ सकती हूं?” “ज़रूर,” हम दोनों ने उस का स्वागत किया। अभी आधा घंटा पहले हम उस के फ़्लैट से खाना खा कर लौटे थे। सातवीं और आखिरी इस मंज़िल के चार फ़्लैटों में