अनचाहे देवता

बहुत पुरानी बात है। कौन-सा साल था, ये अब ठीक-ठीक याद नहीं, शायद गर्मियों की कोई थकी हुई दोपहर थी, जब सूरज की किरणें ज़मीन को झुलसाने में लगी थीं। एक राहगीर, धूल से अटी पगडंडी पर चुपचाप चला जा रहा था। उसके कंधे पर एक झोला था, जो कभी हल्का तो, कभी भारी हो जाता,जैसे जीवन के सवाल।पगडंडी के उस हिस्से पर रास्ता अकेला था, न कोई गांव, न कोई दुकानदार, न कोई प्यास बुझाने वाला कुआँ। कुछ दूर जाकर एक नीम का पेड़ दिखा अकेला, शांत, छायादार। राहगीर की आंखों में थोड़ी राहत चमकी वह पेड़ के नीचे