ग़ज़ल - सहारा में चल के देखते हैं - 3

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Alka agrwal ki gazalyat  ******ग़ज़ल**** 2122     2122    2122    डूबा ऐसा की मुहब्बत का समुन्दर निकला  । वो सफ़ीना था इसी वास्ते तो बहकर निकला,।।   दर्द,- ग़म अपना वो दर्द के केसे पैकर निकला । वो मुहब्बत से हरिक दर्द से बाहर निकला ।।   ख़्वाब के मेरे अनोखे से वहम मन्ज़र थे । जो है ख्वाबों में तू  गहरा सा वो समुंदर निकला ।।   ढूंढ़ती हूँ में जिन्हें आजकल होके दर बदर । वो मिरा ही है वो हमराज भी रहबर निकला ।।   रह उजालों में भी मैं तेरे जो क़ाबिल इसलिए । तीरगी  से लड़ ख़ुद