Alka agrwal ki gazalyat ******ग़ज़ल**** 2122 2122 2122 डूबा ऐसा की मुहब्बत का समुन्दर निकला । वो सफ़ीना था इसी वास्ते तो बहकर निकला,।। दर्द,- ग़म अपना वो दर्द के केसे पैकर निकला । वो मुहब्बत से हरिक दर्द से बाहर निकला ।। ख़्वाब के मेरे अनोखे से वहम मन्ज़र थे । जो है ख्वाबों में तू गहरा सा वो समुंदर निकला ।। ढूंढ़ती हूँ में जिन्हें आजकल होके दर बदर । वो मिरा ही है वो हमराज भी रहबर निकला ।। रह उजालों में भी मैं तेरे जो क़ाबिल इसलिए । तीरगी से लड़ ख़ुद