ग़ज़ल - सहारा में चल के देखते हैं - 2

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ये जो नफ़रत है कम होने को जो तैयार हो जाए। महब्बत फिर ज़माने में गुले गुलज़ार हो जाए।।   तिरी नज़रे इनायत का अगर इज़हार हो जाए। हमारे दिल का  मौसम भी गुले - गुलज़ार हो जाए।।   कहीं ऐसा न हो के ज़िन्दगी दुश्वार हो जाए। जिसे जीना हो मरने के लिए तैयार हो जाए।।   कभी तेरी गली की  ख़ाक छानी हमने भी लेकिन । यही हसरत थी दिल में बस तिरा दीदार हो जाए।।   जो देखून्गी बयाँ वो ही करूँगी तुम से मैं खुलकर। ज़माने भर में ही फिर क्यूँ न हा हा कार हो