तमीज़ और तन्हाई के दरमियान "हुज़ूर, मोहब्बत में लहज़ा भी वही रखिए, जो चाय में इलायची की तरह बस एहसास छोड़ जाए।" लखनऊ की शामें कुछ यूँ होती हैं जैसे किसी शायर की अधूरी ग़ज़ल — न खत्म होती हैं, न ही पूरी। चौक के पुराने मुहल्ले में एक कोठी थी ‘रौशन मंज़िल’ — नाम जितना रोशन, किस्मत उतनी ही धुँधली। वहीं रहती थी रौशनआरा बेग़म — उम्र कोई उन्नीस या बीस, मगर अदब ऐसा कि कोई भी तहज़ीब शरमा जाए। चाय की दुकान पर बैठा रेहान अकसर कोठी की बालकनी को देखता, जैसे वहाँ से निकलता हर परिंदा