शब्दों का बोझ

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जब कोई चीज़ को बार-बार बोलना पड़े, फिर इन सब का मतलब शून्य हो जाता है।कई बार लगता है कि मैं शब्दों का गुलाम हूँ। हर भावना को, हर चोट को, हर उम्मीद को शब्दों में पिरोना पड़ता है ताकि लोग समझ सकें।पर क्या सच में समझते हैं?या बस सुनते हैं, सर हिलाते हैं, और फिर भूल जाते हैं?1. संवाद का भ्रमराघव एक साधारण इंसान था—न ज़्यादा बोलने वाला, न ज़्यादा चुप रहने वाला।पर हाल के कुछ वर्षों में, वह धीरे-धीरे खुद से बातें करने लगा था। वजह सिर्फ़ इतनी थी कि जिनसे उसे उम्मीद थी, वही बार-बार उसे अनसुना