14.प्रेम का स्वरूप और पात्रताअनिर्वचनीयं प्रेमस्वरूपम् ||५१||मुकास्वादनवत्॥५२||अर्थ : प्रेम का वह स्वरूप अवर्णनीय, अकल्पनीय, अतुलनीय है।।५१।। गूँगे के स्वाद की तरह।। ५२ ।।ईश्वरीय भक्ति (प्रेम) तो भाव की बात है, वह भी ऐसा भाव जिसका वर्णन किसी ऐसे इंसान के सामने नहीं कर सकते, जिसने भक्ति को अनुभव न किया हो। और यदि उसके सामने भक्ति की महिमा गाई भी जाए तो वह न इसकी कल्पना कर सकता है, न ही इसे महसूस कर सकता है। इसीलिए नारद जी भक्ति को उस स्वाद की तरह बता रहे हैं, जिसे कोई गूँगा चख रहा हो।मान लीजिए, आपके सामने एक गूँगा इंसान