कुछ रिश्तों को ना ही बनाया जाए तो बेहतर होता हैक्योंकि उनका अंजाम अक्सर राख ही होता है।आज के इस युग में जब भी रिश्तों के बारे में सोचता हूँ, तो मन खिन्न हो जाता है। आज के रिश्तों में न तो कोई मिठास है, न कोई अपनापन। जब-जब अख़बार खोलता हूँ, तो अंत होते-होते आँखों में ऐसा पानी भर आता है, जो बाहर तो आना चाहता है परंतु मैं स्वयं उसे अपनी कमजोरी समझकर रोक देता हूँ। आखिर रिश्तों में रहा ही क्या है? न माँ जैसी ममता, न अपनों के लिए कोई प्यार।अक्सर सुनने को मिलता है —