दहेज की आग में झुलसा एक पिता का अरमान, सुनिए उसकी करुण पुकार....... न बेटी का दोष, न बाप की भूल, फिर क्यों सजा मिले ये धधकती धूल? जन्म लिया बेटी ने जिस क्षण घर में, वहीं जल उठी चिता बाप के स्वर में। हर वर्ष गिनता वो साँसों की गिनती, गहनों में डूबे समाज की नीयती। बनिए से उधारी, किसान से खेत, बाप बेच आया सब—खुद की रीत। नयनों में सपना, हृदय में घाव, दहेज की रक़म बना बाप का भाव। घर को जो थामे था दीवार-सा, वही आज बिखर गया समाचार-सा। ये कविता नहीं,