अध्याय 2: ख़ामोशी की ज़मीन पर खड़ी होती औरत वो औरत अब भी गिरती थी। कभी अपनी भावनाओं से, कभी उम्मीदों से।लेकिन हर बार गिरने के बाद उठने में जो ख़ामोशी होती थी, वो किसी चीख़ से कम नहीं थी।वो कुछ ज़्यादा नहीं कहती थी। बस दुनिया की आवाज़ों से हटकर, खुद के भीतर उतर जाती थी।वहीं, जहां कोई नहीं पहुंचता। जहां सिर्फ खुदा होता था, और वो।कभी-कभी ऐसा लगता कि अब और नहीं होगा — जैसे अंदर की दीवारें ढह रही हों।फिर भी वो खड़ी रहती, टूटी-फूटी सही, मगर खड़ी।जैसे कोई पेड़, जो आँधी में झुका तो हो, मगर