टेढ़ा पाहुना

“आंंटी,”पड़ोस की गुड्डी ने पुकारा। मैं आटा सानती रही। “आंटी, देखो कोई आया है।” मैं ने आटे की थाली परे धकेल दी और अपने बिखरे बाल समेटती हुई बाहर की ओर लपक ली। “अशोक? तुम?”दरवाज़ा खोलते ही मैं सन्न रह गयी। “नंदिता!”  अशोक ने मेरा नाम पुकारा तो एक बिजली मेरे पूरे शरीर को झकझोर गई। “नमस्कार,” इधर देख रही पड़ोस के बच्चों की मां की दिशा में मैं ने अपने हाथ जोड़ दिए। वह अपने बरामदे में ताज़ा धुले कपड़ों को पूरे ज़ोर-शोर से छांटते- छांटते मेरी कमीज़ को घूरने लगी थी। मैं दुपट्टा नहीं ओढ़े हुए थी। “आओ,”