3.भक्ति के अनुकूल कर्म कैसे होनिरोधस्तु लोकवेदव्यापारन्यासः ||८|| तस्मिन्ननन्यता तद्विरोधिषूदासीनता च ॥९॥ अन्याश्रयाणां त्यागोऽनन्यता ||१०|| लोके वेदेषु तदनुकूलाचरणं तद्विरोधिषूदासीनता ||११|| अर्थ : निरोधस्तु = वस्तुतः त्याग; लोक = लौकिक, वेद = धार्मिक; व्यापार = व्यापारों का; न्यास : संन्यास है। लौकिक और वैदिक (समस्त) कर्मों के त्याग को निरोध कहते हैं ||८|| भगवान के प्रति अनन्यता तथा उसके विरोधी विषय में उदासीनता को निरोध कहते हैं ।।९।। एक प्रियतम प्रभु को छोड़कर अन्य आश्रयों का त्याग अनन्यता है ।।१०।। लौकिक और वैदिक कर्मों में भगवान के अनुकूल कर्म करना ही उसके प्रतिकूल विषयों में उदासीनता है ।।११।।नारद भक्ति सूत्र के ८ से लेकर ११ तक के सूत्र आपस