गुल–दास्तां भाग 1

  • 201
  • 57

भूमिका — "गुल–दास्तां"कुछ कहानियाँ धूप में सूख चुके फूलों की तरह होती हैं—मुरझाई नहीं होतीं, बस वक़्त के पन्नों में दबकर पुरानी हो जाती हैं। उनमें अब भी रंग होते हैं, पर हल्के; उनमें अब भी ख़ुशबू होती है, पर रुक-रुक कर।"गुल–दास्तां" उन यादों, मुलाक़ातों और बिछुड़नों की एक बुनावट है, जो कभी किसी शनिवार की दोपहर, स्टेशन की कॉफ़ी, या किसी ग़ज़ल की धुन में खिली थीं। यह सिर्फ़ प्रेम की नहीं, उस दूरी की भी दास्तां है जो दो शहरों, दो समयों, या दो चुप्पियों के बीच होती है।यह संग्रह उस मूक संवाद को दर्ज करता है जो