“हरीश त्रिपाठी का मकान क्या यही है?” दुमंज़िले उस मकान के मुख्य द्वार पर वही पता लिखा था जो कस्बापुर के हमारे सरकारी कालेज के दफ़्तर में हरीश के दूसरे पते के रूप में दर्ज रहा था। और मैं ने ठीक वहां पहुंच कर कौल- बेल बजा दी थी। “जी हां, बताएं,” दरवाज़ा खोलने वाली महिला का स्वर रूखा रहा, “आप को उन से क्या काम है?” “उन्हों ने मुझे यहां बुलाया था,” मैं ने गप हांकी। नहीं कहा, मैं इस लिए आयी हूं क्यों कि मैं उन से प्रेम करती हूं और बिना छुट्टी लिए उन का कस्बापुर के