किशोर काका जल्दी-जल्दी अपनी चाय की लारी का सामान समेट रहे थे। बाहर हाईवे पर गाड़ियों की रोशनी बारिश की तेज़ बूंदों से लड़ती दिख रही थी। उनकी लारी, जो एक पुराने वटवृक्ष के नीचे थी, उस पर बड़े अक्षरों में लिखा था: "किशोर काका की चाय"।यह लारी सिर्फ चाय बेचने का ठिकाना नहीं थी, बल्कि आसपास के गांववालों के लिए एक चौपाल बन चुकी थी। यहां हर शाम गांव के लोग जमा होते, सुख-दुख की बातें करते और किशोर काका की मसालेदार चाय के मजे लेते। जो मुसाफिर यहां एक बार रुकते, वे इस जगह की चाय और किशोर