यूँ ही सफर में

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“मैं सोचता हूँ कि अब इस घर को बेच दूँ।“राघव (राघवेन्द् ) ने अपने कमरे की खिड़की से बाहर खुले आसमान की ओर बहुत दूर तक देखते हुए कहा। अगले ही पल राघवेन्द्र ने अपनी दृष्टि को दूर आसमान से हटाकर सुलेखा की ओर देखा। उसे लगा कि उसकी बातों को सुना ही नहीं गया है, परंतु सुलेखा के माथे पर उभर आयी सिलवटों को देखकर उसे अपना विचार बदलना पड़ा।ऐसा हो भी नहीं सकता था कि वह कुछ कहे या करे और उस पर सुलेखा ध्यान न दे। चालीस वर्षों के विवाहित जीवन में कभी ऐसा हुआ भी हो