भगवान् वेदव्यास

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स वै पुंसां परो धर्मों यतो ययात्मा भक्तिरधोक्षजे। अहेतुक्यप्रतिहता सम्प्रसीदति॥ –( श्रीमद्भा० १ | २ |६ )“इन्द्रियातीत परमपुरुष भगवान् मे वह निष्काम एव निर्वाध भक्ति हो, जिसके द्वारा वे आत्मस्वरूप सर्वेश्वर प्रसन्न होते हैं—यही पुरुषका परम धर्म है।”कलियुग में अल्प सत्व, थोड़ी आयु तथा बहुत क्षीण बुद्धि के लोग होगे। वे सम्पूर्ण वेदो को स्मरण नहीं रख सकेंगे, वैदिक अनुष्ठानो एव यज्ञो के द्वारा आत्म कल्याण कर लेना कलियुग मे असम्भवप्राय हो जायगा–यह बात सर्वज्ञ दयामय भगवान् से छिपी नहीं थी। जीवो के कल्याण के लिये भगवान् द्वापर के अन्त मे महर्षि वशिष्ठ के पौत्र श्रीपराशर मुनि के अंश से