प्रेम मानव का एक आधारभूत मनोभाव हैं। जिसके बिना जीना कुछ अपवादों(वो भी एक लंबे अरसे के प्रशिक्षण के बाद) को छोड़कर असंभव सा जान पड़ता हैं। इसे परिभाषित कैसे करें। इसके बारें में संसार मे व्यापक मतभेद हैं। लेकिन निजी धरातल पर हो सकता हैं। इसकी परिभाषा की पृष्टभूमि एक जैसी हो, मतलब इसे अनुभव करने की प्रवृत्ति कमोबेश एक जैसी हो, पर दुनिया भर की संस्कृतियों में विकास की गति में अंतर होने के कारण इसके प्रमुख रूप अलग-अलग हो सकते हैं। और जब इस प्रेम को निजी वस्तु ना समझकर इसका समाज के स्तर पर यथार्थवादी तरीकें