गुलाब का खून- प्रबोध कुमार गोविल ज़्यादा हरियाली तो अब नहीं बची थी पर जो कुछ भी था, उसे तो बचाना ही था। इसीलिए वो पानी का पाइप हाथ में लेकर लॉन के कौने वाले उस पौधे पर धार छोड़ने में लगे थे जिसमें बगीचे का एकमात्र गुलाब मुश्किल से आज झलका था। सिर की गोल टोपी उतार कर कुर्सी पर रख देने से उनकी गोरी- चिकनी चांद सी खोपड़ी हल्की धूप में चमक रही थी। सलवार के पांयचे उन्होंने कुछ ऊपर चढ़ा लिए थे। टखने से नीचे उनके सफेद - झक्क पैरों में सफ़ेद सैंडिल कहीं - कहीं से