एक शायराना सफ़र

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नजरो से नजर मिला कर जान ना सके,हाथ से हाथ मिलाकर नियति अपना ना सके,लफ्ज़ से लफ्ज़ प्यासे सागर का इरादा ना समझ सके,जिस्म से जिस्म का ये इत्तेफाक कभी दोहरा ना सके,रूह से रूह जोड़ कर भी खुदको अंदर से बहला ना सके,दिल से दिल के दर्द को खैर वो कभी जान ना सके,दबे हुवे अल्फ़ाज़ कभी निकल ना सके,जान कर भी क्या अंजान ना बन सके,यही एक कहानी जो पन्नो में उतर रही है,कलम से स्याही का का मतलब समझा रही है,निर्दय होते है खामोशी की वजह ना जान सके,खुदा से क्या इतने गाव के भी मरहम ना