परितृप्त

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परितृप्त दफ्तर से घर लौटते उसके पैर मानो नाच रहे थे . आज घर में बरसों बाद वह अपनी पत्नी के साथ अकेला होगा . वरना तो बाबूजी ,अम्मा ,छोटी और राजू सब से भरे पूरे घर में सरिता से ढंग की एक बात भी कहाँ हो पाती है . ऐसा नहीं है कि उसे अपना भरा पूरा घर अच्छा नहीं लगता . इन्हीं लोगों की ऊँगली पकड़ उसने चलना सीखा . इन्ही बहन भाइयों से हंसते बोलते बचपन से जवान हुए , हर दुःख सुख बराबर झेला . फिर भी आज जैसा फील हो रहा है वैसा तो अद्भुत है