दिल की बात – एक स्त्री का मौन दर्द (पूर्ण
कभी-कभी जीवन में ऐसा समय आता है
जब कोई बड़ा हादसा नहीं होता,
बस कुछ शब्द…
और कुछ लोग…
हमारे अंदर बहुत कुछ तोड़ जाते हैं।
मेरे जीवन में भी ऐसे ही कुछ पल आए
जो आज तक दिल में चुभे हुए हैं।
शादी से पहले मेरी दुनिया छोटी थी।
पैसे कम थे,
सपने बड़े थे,
और मन बहुत ही साधारण खुशियों से संतुष्ट हो जाता था।
एक दिन मार्केट गई।
एक ड्रेस देखी — बहुत सुंदर, बहुत पसंद आई।
महँगी नहीं थी,
लेकिन मेरे हालात के हिसाब से बड़ी थी।
मेरी सहेली ने वही ड्रेस ली थी
तो मैंने भी हिम्मत करके उसी दुकान पर जाने का सोचा।
मैं दुकान में गई,
धीरे से ड्रेस दिखाई और कहा—
“भैया, इसकी कीमत क्या है?”
दुकानदार ने मुझे ऊपर से नीचे तक ऐसे देखा
जैसे मैं वहाँ खरीदने नहीं,
भीख माँगने आई हूँ।
फिर वह हँसते हुए बोला—
“जब लेने की औकात नहीं है,
तो महंगी ड्रेस की दुकान पर क्यों आती हो?
तुम जैसी लोग पता नहीं कहाँ-कहाँ से आ जाते हैं!
ना लेने की औकात, और दुकान में आने चली आती हो!”
उसकी हर बात ताना नहीं,
जैसे चांटा थी।
दुकान में बाकी लोग भी देखने लगे
और मैं वहाँ अकेली खड़ी थी…
अपमान के बीच।
मेरी आँखों में आँसू आ चुके थे,
पर मैंने कुछ नहीं कहा।
बस चुपचाप,
अपने आँसू छुपाते हुए,
धीरे-धीरे बाहर निकल आई।
उस दिन मैंने जाना कि
अपमान कितने तरीके का होता है—
कभी शब्दों से,
कभी नज़रों से,
और कभी लोगों की सोच से।
शादी हुई।
सोचा था—
अब हालात बदलेंगे,
अब कोई मेरे दर्द को समझेगा।
पर ऐसा नहीं हुआ।
मेरे हसबैंड कहते—
“बहुत पैसा नहीं है, हिसाब से चलो।”
मैं वही करती थी।
सस्ते कपड़ों में भी खुश हो जाती थी।
मन ही मन यह सोचकर संतोष कर लेती थी
कि बस ज़रूरत पूरी होनी चाहिए।
पर दर्द तब हुआ
जब वही हसबैंड
बाद में कहते—
“गँवारू जैसी ड्रेस ले लेती हो!
थोड़ा अच्छा लिया करो।”
और जब कभी मैंने हिम्मत करके
थोड़ा अच्छा लेने की कोशिश की,
तो ताना वही—
“इतना पैसा बर्बाद करती हो?”
सस्ता लूँ तो ताना,
अच्छा लूँ तो ताना…
मानो मेरी हर छोटी इच्छा गलत थी।
दुनिया क्या कहती है,
इससे मैं टूटती नहीं थी।
पर हसबैंड का कहना
दिल पर गहरी चोट छोड़ जाता था।
और फिर बीमारी ने मुझे बिस्तर पर ला दिया।
चलना मुश्किल,
दर्द बढ़ा हुआ।
मैंने बस इतना कहा—
“लेटकर खाना दे दो।”
लेकिन जवाब में सुनना पड़ा—
“बीमारी का बहाना बनाती है,
लेटे-लेटे खाना चाहती है।”
ससुराल के लोग तो कहते ही थे,
पर जब मेरे हसबैंड ने भी
वही बात दोहरा दी—
तब दिल सच में बिखर गया।
क्योंकि दुनिया के ताने सह सकती थी,
पर अपने ही इंसान का अविश्वास
मेरे भीतर तक चीर गया।
मैंने कभी किसी की जेब पर बोझ नहीं डाला,
न कभी औकात से ज़्यादा चाहा।
मैंने हमेशा हिसाब से ही चला,
संतोष में रही,
सादगी में खुश हुई।
लेकिन
दिल को सबसे ज़्यादा वही बातें तोड़ती हैं
जो अपने लोग कहते हैं।
काश कभी किसी से यह न सुनना पड़ता
कि “तुम्हारी औकात नहीं है।”
काश कोई समझ पाता
कि एक स्त्री की असली औकात
उसकी इच्छाओं में नहीं,
उसके आत्म-सम्मान में होती है।
मेरी औकात हमेशा से साफ थी—
संतोष, सादगी और आत्मगौरव।
पर अब बस एक ही दुआ है—
खुदा किसी को भी
उस अपमान का,
उस ताने का,
उस दर्द का बोझ
कभी महसूस न करवाए
जिसे मैंने सहा है।
क्योंकि कुछ घाव दिखाई नहीं देते,
पर हमेशा साथ र