“ख़ामोशी का शोर”
मैं अपनी भी ना हो सकी,
फिर दूसरों से क्या उम्मीद रखती हूँ…
दिल की हालत तो खुद भी समझ नहीं पाती,
लेकिन दिमाग को समझाती रहती हूँ…
चलते-चलते, ज़िंदगी के उस अजीब मोड़ पर आ गई हूँ…
दिमाग को संभालते-संभालते,
खुद ही न समझ हो जाती हूँ…
कभी दिल रूठा रहता है,
तो कभी दिमाग थक कर चुप हो जाता है…
ये कैसी जंग मैं खुद से कर बैठी हूँ…
जहाँ परिणाम का इंतज़ार करती रह जाती हूँ…
ये ख़ामोशी मुझे खाती जा रही है,
हर बार ज़िंदगी पर एक नया सवाल उठती जा रहा है…
क्या मैं ये हूँ, जो बनती जा रही हूँ??
-Sonam kumari