“मैं”
१.
मैं शब्द नहीं, चिंगारि प्रखर,
जो देह जले, मन दीप धरे।
हर बार जहाँ “मैं” बोल उठे,
सत्य वहीं सिमटे, मौन भरे॥
२.
“मैं” ऊँचा हुआ, “तू” हो गया क्षुद्र,
भ्रम जाल यही जग बाँध गया।
मानव रोया मानव से ही,
“मैं” शिखर चढ़ा, मन डूब गया॥
३.
“मैं” बाँटा धर्म, सीमाएँ खींचीं,
मंदिर-मस्जिद सब तोड़ गया।
युद्ध जगाया, लहू बहाया,
अहंकार सृष्टि को मोड़ गया॥
४.
जो “मैं” कहे – “सब मुझमें हैं”,
वह सत्य सुधा रस पा लेता।
जो झुके सहज, जो मौन बहे,
वह “मैं” अमरता पा लेता॥
५.
मृत्यु अंत नहीं, आरंभ नया,
जब देह धूल में खो जाती।
“मैं” मिट जाता, आत्मा जागे,
साक्षी बन जग को देख जाती॥
६.
जल में, वायु में, रेत प्राण में,
“मैं” सूक्ष्म रूप में फैल रहा।
जब “मैं” तजोगे, तभी पाओगे,
वह “मैं” जो सबमें खेल रहा॥
एन आर ओमप्रकाश 'अथक'