*बेचैन सी रात*
रात उतरी तो थी चाँदनी की ओढ़नी में,
पर मन के भीतर अँधेरा कुछ ज़्यादा ही घना था।
नींद बार-बार चौखट तक आई,
मगर बेख़बर लौट गई –
क्योंकि विचारों की भीड़ ने
दरवाज़ा बंद नहीं होने दिया।
हवा में धीमी सरसराहट थी,
पर हर आवाज़ में एक अनकहा सवाल गूँजता था —
आख़िर ये मन इतना अशांत क्यों है?
किस अधूरेपन का धुआँ
इन पलकों के भीतर भटकता रहता है?
घड़ी ने जैसे वक़्त की गवाही दी –
हर टिक-टिक एक प्रहार थी,
जो यादों के शीशे पर गिर रही थी।
बीते दिन, बिछड़े लोग, अधूरे काम —
सब अपना चेहरा लेकर लौट आए थे
इस बेचैन सी रात में।
सुबह होगी तो शायद
यह उदासी भी ओस की तरह पिघल जाएगी,
पर अभी…
इस रात की चुप्पी में मैं बस इतना जानता हूँ —
कि मन भी कभी-कभी
नींद से ज़्यादा सत्य की तलाश में जागता है।
आर्यमौलिक