घर बर्बाद कौन करता है?
घर बर्बाद करने वाले कोई बाहर वाले नहीं होते,
घर तो तब टूटता है जब अपने ही भीतर से सड़ा देते हैं उसे —
धीरे-धीरे, बातों के ज़हर से।
जब बेटा किसी और औरत के साथ दिखता है,
तो माता-पिता यह नहीं कहते कि “गलत है” —
बल्कि कहते हैं,
> “कोई बात नहीं बेटा, बहू को मत बताना…
वह जान भी जाए तो बनी रहे,
आखिर हमारे लिए तो वही रसोई में सेवा करती है।”
और अगर वही बहू सच्चाई जानकर बोल दे,
अपना दुख ज़ाहिर करे —
तो कहते हैं,
> “हमारी बहू तो बहुत बदतमीज़ है,
आजकल की औरतें ज़रा-ज़रा सी बात पर बखेड़ा करती हैं।”
कभी सोचा है, यही सोच
पुरुषों को बाहर बढ़ावा देती है।
जब गलती करने वाला भी हीरो बना दिया जाए,
और सहने वाली औरत को दोषी,
तो फिर घर कैसे बचेगा?
वह बहू चुप रहे तो “कमज़ोर”,
बोले तो “मुंहफट”,
और टूट जाए तो “अभागन” कहलाती है।
असल में घर तब नहीं टूटते जब आदमी बेवफ़ा होता है,
घर तब टूटते हैं जब परिवार
उसकी बेवफ़ाई को चुपचाप स्वीकार कर लेते हैं।
परिवार वालों का सपोर्ट होता है अपने बेटे को बढ़ावा देने में