गाने में छिपा ताना
गाँव की शादी का जश्न पूरे शबाब पर था। औरतों का झुंड दालान में बैठा था, हाथों में ढोलक, तालियाँ और गाने की गूँज। कोई लोकगीत छेड़ता तो सब ठहाकों में डूब जातीं। हंसी-ठिठोली, मजाक और मस्ती—यही तो महिला संगीत की असली जान होती है।
भीड़ में से तभी एक बहू उठी। जवान थी, स्वर में मिठास थी। सबने तालियाँ बजाईं—“वाह, अब तो मजा आ जाएगा!”
उसने देहाती गाना शुरू किया। ढोलक की थाप पर उसकी आवाज़ गूँजी—
“सास तो बड़ी करारी,
बहू तो है हमारी प्यारी…”
गाने में आगे बढ़ते ही शब्दों का रुख बदल गया। गीत की धुन में उसने “गाली शब्द” जोड़ दिए। परंपरा का हिस्सा मानकर बाकी औरतें खिलखिला कर हँस पड़ीं। हर ताली, हर ठहाका, उस गीत को और ऊँचा कर रहा था।
लेकिन भीड़ के बीच एक चेहरा चुप था।
वह थी—सास।
वह सिर झुकाए बैठी रहीं। उनकी आँखों में गहरी उदासी थी। शायद वे समझ नहीं पा रही थीं कि यह गीत मजाक है या अपमान। बहू की आवाज़ जितनी ऊँची उठती, उनके दिल की चुप्पी उतनी गहरी होती जाती।
कुछ कह भी तो नहीं सकती थीं। सब कह देते—“अरे, ये तो रस्म है, परंपरा है, मजाक है।”
पर उनके लिए यह मजाक नहीं था।
यह रिश्तों के सम्मान पर एक चोट थी।
मैंने सोचा—सच में, यह घोर कलयुग है।
जहाँ बहू-बेटियाँ गीतों में सास को गालियाँ देकर हँसी का सामान बना देती हैं, वहाँ रिश्तों की पवित्रता कहाँ रह जाती है?
जहाँ शब्दों की मिठास की जगह कटुता और तानों ने ले ली है, वहाँ प्रेम और आदर की नींव कितनी कमजोर हो जाएगी?
असल में, सब एक जैसे नहीं होते।
कुछ पति अच्छे होते हैं, कुछ बुरे।
कुछ पत्नी त्यागमयी होती हैं, कुछ स्वार्थी।
कुछ प्रेमी सच्चे, कुछ धोखेबाज़।
प्रेमिका अच्छी बुरी
अच्छाई और बुराई दोनों हर जगह हैं।
लेकिन जब अच्छाई का सम्मान न हो और बुराई हँसी का कारण बन जाए—तभी तो लगता है कि कलयुग सचमुच हमारे बीच उतर आया है।