बीमार मन की स्मृतियाँ
बीमार मन की खिड़कियों पर
स्मृतियों की धूल जमी रहती है,
कभी कोई हंसी की आहट
उस धूल में उँगलियाँ फेर जाती है,
और कभी कोई रोष,
शांत कोनों में फफूँदी बनकर उग आता है।
स्मृतियाँ—
वे अधूरी कविताएँ हैं
जो लिखी तो गईं,
पर कभी पूरी न हो सकीं।
वे टूटे हुए सपनों की किरचें हैं
जिन पर चलते-चलते
मन के तलवे छिल जाते हैं।
बीमार मन जानता है
कि समय ही एक चिकित्सक है,
पर समय की दवा
धीरे-धीरे असर करती है—
मानो गहरे कुएँ में डाली
एक-एक बूंद पानी।
कुछ स्मृतियाँ
फफोलों जैसी हैं—
छूने पर दर्द देती हैं,
और कुछ,
जैसे बुझ चुकी अग्नि की राख
जो बस उँगलियों पर
धूसर निशान छोड़ जाती है।
बीमार मन फिर भी
इन स्मृतियों को संजोए रहता है,
मानो रोग ही उसकी पहचान हो,
मानो दर्द ही
उसके भीतर की अंतिम भाषा हो।
आर्यमौलिक