मैं और मेरे अह्सास
माँ की वेदना कोई भी ना समझ पाया जहाँ में l
गली में क़ासिद आए तो लगता है के तुम हो ll
तलब एक नज़र देखने की इस तरह बढ़ गई कि l
पत्ता पत्ता आहट लाए तो लगता है के तुम हो ll
आशियाने की तलाश में इधर उधर घूमते हुए l
पंखी खिड़की से टकराए तो लगता है के तुम हो ll
सखी
दर्शिता बाबूभाई शाह