डॉ. सूर्यपाल सिंह की ग़ज़लें- नए पत्ते से
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(14)
काँटों की तक़दीर न पूछो।
कैसे हुए फ़कीर न पूछो ।
फूल सभी सुख से जीने की,
करते क्या तदबीर न पूछो।
जंगल जंगल हिरन डोलकर,
चाभे बैठ करीर न पूछो।
सुख के पीछे मारा मारी,
दुख घर की शहतीर न पूछो।
कौन भर्तृहरि घर से पीड़ित
बनता यहाँ फ़कीर न पूछो।
(15)
मीर यहीं सोचा है, ज़रा धीरे बोलो।
पोखर भी रोया है, ज़रा धीरे बोलो।
उलझे हैं युवा बहाते खून की नदियों,
बचपन भी खोया है, ज़रा धीरे बोलो।
वे खाते हैं बातें बनाने की रोटी,
लोइयाँ न पोया है, ज़रा धीरे बोलो।
सत्ता कहती है कुण्डली मारे बैठी,
जन जन को टोया है, ज़रा धीरे बोलो।
खेतों में फसलें ही उगानी थीं लेकिन,
कीकर ही बोया है, ज़रा धीरे बोलो ।
(16)
जब यहाँ आकाश में बादल खिले हैं।
गाँव से मजबूरियों के ख़त मिले हैं।
बादलों से है गुज़ारिश बरस जाएँ,
झील है सूखी शिकारे तट लगे हैं।
पार्लर में सज रहे दुष्यंत कितने ?
शापिता शाकुन्तलाएँ तरु तले हैं।
जर-ज़मीं-जंगल-खदानें घर लिया ही,
नज़र पानी पर टिकी क्या हौसले हैं?
अब घरों में भी नहीं कोई सुरक्षित,
लौट आती चिट्टियाँ द्वार बदले हैं।
(17)
याद तेरी बरस मन छुई रात भर ।
सावनी बूँद टुप टुप चुई रात भर
मन बहुत था कि साथी बनें, सँग रहें,
पर नियति जाल बुन खुश हुई रात भर ।
लोग कहते कि जोड़े बना रब रहा,
फिर अलग क्यों ? चुभे ज्यों सुई रात भर ।
कल्पना की उड़ानें उड़ातीं बहुत,
मन रहा एक छूई-मुई रात भर ।
खुश रहो तुम बना आशियाँ और में,
मन्द जलता रहूँ ज्यों खुई रात भर ।
(18)
लुटेरे हौसले आकाश अब छूने लगे साथी ।
नया घर जो बनाया है टपक चूने लगे साथी ।
ग़रीबे के पसीने से खड़े होते महल सारे,
उसी की झोंपड़ी में आग अब दिन में लगे साथी ।
कहीं पूरी कमाई से न बनती झोंपड़ी कोई,
कहीं आकाश छूते घर डराते से लगे साथी ।
दिशा जो देश को देनी नहीं हम दे सके कोई,
नया प्रारूप गढ़ने में अवश होने लगे साथी ।
हमें 'पर' और 'निज' का भी न आया मेल करना कुछ,
सदा विघटन रहे सेते वही बोने लगे साथी ।
(19)
वही गुस्सा, वही नफरत, वही शैतान की बातें।
कहीं हम भूल आए हैं खरे इंसान की बातें ।
जुगुप्सा में पली पीढ़ी न जाने क्या करे साथी ?
नई दुनिया बसानी गर करें ईमान की बातें ।
बहाने सैकड़ों होंगे किसी को क़त्ल करने के,
मगर हम व्यर्थ में क्यों नित लड़ें कर आन की बातें।
गुनह करता कहीं कोई जमातों को सज़ा फिर क्यों?
ख़ता क्षण की सज़ा सदियों करें हम शान की बातें।
जलेंगी बस्तियाँ सारी सदाकत हार जाती गर,
भले ही ज़लज़ले आएँ करें इमकान की बातें।