डॉ. सूर्यपाल सिंह की ग़ज़लें- नए पत्ते से
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(8)
अभी यदि कड़क ठंडक है कभी मधुरात तो होगी ।
ज़रा बहके क्षणों की कुछ अभी तक याद तो होगी।
परिन्दे भी पुराने मीत को कुछ याद रखते हैं,
जिया था जिन क्षणों को अब वही सौगात तो होगी ।
सभी कहते किसी के काम आता है नहीं कोई,
जनाज़े में जुटे हैं लोग कोई बात तो होगी ।
निशा है यह अमावस की, अकेला हूँ, घना जंगल,
गरजते हैं उमड़ बादल कहीं बरसात तो होगी।
बड़ी मुश्किल हुई जब अश्रु निकले भीड़ में, दिन में,
उन्हें समझा रहा हूँ दिन ढले फिर रात तो होगी।
(9)
भयंकर ऑंधियाँ हों पर नहीं गिरते नए पत्ते ।
किसी की भीख पर कोई नहीं पलते नए पत्ते ।
भँवर से नित लड़ा करतीं हमारी डोंगियाँ छोटी,
लहरती जब हवाएँ हों क़दम रखते नए पत्ते ।
सदा आसान होती हैं बड़ी मुश्किल भरी राहें,
नुकीले सख़्त काँटों सँग मचल उठते नए पत्ते ।
जगातीं भोर की किरणें खुशी से नाचतीं कोंपल,
कठिन पतझार का झर झर नहीं झरते नए पत्ते ।
नई पीढ़ी अगर चाहे तमाशा ही बदल डाले,
समय कितना डराता हो, नहीं डरते नए पत्ते।
(10)
उजाले को सियासी मार जब घायल बनाएगी।
कहाँ से रोशनी कोई घरों को जगमगाएगी ?
नहीं होते सभी के घर पहाड़ी रायसीना पर,
भला कब गह्वरों में ज़िन्दगी दियना जलाएगी?
सियासी खेल के माहिर जुआ खेलें खुले मन से
रखें वे देश को फड़ पर तभी सुख नींद आएगी।
जलाते जो निजी घर को, निजी हित ताक पर रखते,
उन्हीं से रोशनी कोई ज़रा सी झलमलाएगी ।
नया घर यदि बनाना है नए औज़ार भी लाओ,
तराशोगे सभी हीरे तभी घर चमक आएगी।
(11)
हाथ कितनों के यहाँ खूं से सने हैं ।
आप चुप बैठे यहाँ, क्यों अनमने हैं ?
वे सितम की हद बनाते पार करते,
देखते हैं भाड़ में कितने चने हैं?
बरगलाते वे यही कहते फिरेंगे,
भेड़िए के सामने हम मेमने हैं
जग गए है मेमने नाखून सेते
भेड़िए के सामने आकर तने हैं ।
यह क्षणिक उत्तेजना है वे कहें, पर
मेमने फौलाद के साँचे बने हैं ।
(12)
क्यों वे लिए तलवार? कुछ पता नहीं।
किस पर करेंगे वार? कुछ पता नहीं ।
मासूम है डोली में बैठी वधू,
ले जायें किधर कहार ? कुछ पता नहीं।
मौसम की उमस में सभी लिए -दिए,
कब पड़ रही बौछार ? कुछ पता नहीं।
बँहगी लिए कांधे प्रेमी गा रहा,
कब तक बचेगा प्यार ? कुछ पता नहीं ।
मझधार में कश्ती, मौसम उन्मत्त
लड़ सकेगी पतवार कुछ पता नहीं।
(13)
जब हमारी आँख में गुस्सा उगा है।
कह रहे वे आदमी रातों जगा है।
नींद की कुछ गोलियाँ इसको खिलादो,
सो रहे, फिर उत्सवों का रतजगा है ।
वे तिजोरी भर रहे हैं देश हित में,
क्या भला यह देश से कोई दग़ा है?
फड़फड़ाते पक्षि शावक कुनमुनाते,
बाज कब इन शावको के मुँह लगा है ?
इश्तिहारों से सजी दुनिया चमकती,
आदमी कितने क़रीने से ठगा है?