Hindi Quote in Shayri by Dr. Suryapal Singh

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सूर्यपाल सिंह की ग़ज़लें- नए पत्ते से
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(1)

घुँघरू से प्यार करे कोई ।
कैसे व्यापार करे कोई?

पुतली के बीच बसा करके,
कैसे इक़रार करे कोई?

शब्दों में प्यार बँधा कब है ?
कैसे इज़हार करें कोई ?

आँखें जब आँखों से मिलती,
कैसे तकरार करे कोई ।

स्वाती की बूँद कौन जाने,
काश! इन्तज़ार करे कोई ।


(2)

शहर-गाँव दोनो परेशान क्यों हैं?
रुधिर में रिसे आज शैतान क्यों हैं?

कहीं जुल्म होता रहा है यहाँ पर,
मगर देश सरकार अनजान क्यों हैं?

सदा वंचितों की लड़ाई कठिन है,
वही गर उठें सब हलाकान क्यों हैं?

फसल जो न बोता कटाता वही है,
हुए आज इनसान हैवान क्यों हैं?

यहाँ बादलों की गरज सुन रहे हम,
न है बूँद पानी, न इमकान क्यों है?


(3)

जिधर देखिए आज कुहरा घना है ।
यहाँ चोर को चोर कहना मना है।

सदा लूटते जो वही तर्क गढ़ते,
न कोई धवल, पैर सब का सना है ।

नहीं सोचते वे किसे लूटते हैं?
भरे जेब उनकी यही साधना है।

न ईमान बेचो कहा है सभी ने,
मगर बेचते वे, कहाँ कुछ सुना है?

लगा बंदिशें देश को हाँकते वे,
ज़रा भी यहाँ शोर करना मना है।


(4)

कभी लौटकर वक़्त आता नहीं है।
समय बेरहम कुछ बताता नहीं है।

सताए हुए जो समय कीचकों से,
भरोसा उन्हें जग दिलाता नहीं है ।

जवानी कभी गर गिरे पस्त होकर,
कभी दौड़ कोई उठाता नहीं है ।

उठा जो सृजन को नया रंग देने,
गिरा गर कहीं तड़फड़ाता नहीं है

बड़ी खाइयाँ पाटने जो चला है,
बवंडर उसे खुद डराता नहीं है।

(5)

रुलाकर किसी को न खुश होइएगा।
निरन्तर खुशी की फ़सल बोइएगा।

भले ही बहुत तंग हों हाथ लेकिन,
किसी का कभी टेट मत टोइएगा।

कभी पाँव फिसलें मिले हार तो भी,
नई रोशनी ले निडर सोइएगा।

यहाँ कालिखों का लगाना शगल है,
उसे साँच की आँच खुद धोइएगा।

चुनौती परोसे तुम्हें ज़िन्दगी जब,
सृजन की नरम लोइयाँ पोइएगा।

(6)

बोल तू, लड़खड़ाते न चल, बोल तू ।
बाँध खंजर चला पर न बल, बोल तू ।

कौन तू ? क्या किसी ने तुझे सीख दी,
लाल आँखें तुम्हारी सजल, बोल तू ।

तू शराफ़त कहाँ छोड़ आया बता,
इस तरह क्यों किया दल बदल, बोल तू?

रब बुलाता तुझे हाथ खोले हुए,
मुटि्ठयाँ बाँध यूँ कर न छल, बोल तू?

ज़ालिमों ने सदा हार मानी यहाँ,
कौन सी राह तेरी निकल, बोल तू?

(7)

किसी तरु के नए पत्ते कभी क्या टूट गिरते हैं?
बिना पूछे मगर आँसू कसक कर खुद निकलते हैं।

धवल बेदाग़ काजल कोठरी से निकल आना है,
कली के पंख ख़ारों से घिरे पर रंग भरते हैं।

बनाया बाँस का बेड़ा अगम नद पार जाने को,
बढ़ाओ हौसला पतवार जो निज कर पकड़ते हैं।

ज़रा सी रोशनी कोई अँधेरे में दिशा देती,
सहारे एक जुगनू आदमी तम चीर चलते हैं।

कभी बाज़ार में कुछ वस्तुएँ या ढोर बिकते थे,
मगर अब आदमी नित ढोर की ही भाँति बिकते हैं।

न अब बाज़ार सच्चाई बयाँ करते ज़रा सोचो,
जिसे सब सोचते असली वहीं नकली निकलते हैं।

Hindi Shayri by Dr. Suryapal Singh : 111878379
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