बचपन यहीं गुजारे हैं
सौ-सौ बार चले यहीं हैं,
अभी शहर का शोर खोया सा है
भाव पुराने खड़े यहीं हैं।
तैरना यहाँ सीखा हमने
शिखरों पर जाना हुआ यहीं पर,
डूबना- डुबाना यहीं हुआ है
मस्त भावों की दौड़ यहीं पर।
ग्वाल-बाल हम यहीं बने हैं
कुछ पल यहीं समेट रहे हैं,
समय से कोई बड़ा नहीं
पल-पल की जिह्वा देख रहे हैं।
जटिल हमारा मानस तंत्र
सुख-दुख के हैं व्यापक अंग,
ढूंढ लिया हमने जग को
बचपन जैसा नहीं कोई संग।
* महेश रौतेला
अपने गाँव के पत्थरों के साथ-