अकेले ही लड़नी है लड़ाई मुझे
समझ में ये बात अब आई मुझे
एक तरफ तैयार है गहरा कुआं
एक तरफ दिख रही खाई मुझे
जाने ये कैद कब तक मुकर्रर है
कब मिलनी है इससे रिहाई मुझे
यूँ न अश्क़ बहाते हम अब तक
काश आ जाती पहले बीनाई मुझे
ये बारिशों के मौसम सूखे सूखे हैं
मिलती नहीं कहीं भी पुरवाई मुझे
ए सहर आ कि कुछ उजाला हो
इस शब को देनी है विदाई मुझे
बज रही हो निकाह या मातम पर
“शिल्प” भाती नही है शहनाई मुझे
संजय नायक"शिल्प"