धूप चटख थी दुपहरी की ,और छाया का नाम न था
अबसे पहले ऐसा तो कभी, पर ये मेरा गाम न था
घर भी हूँ मैं, बिस्तर भी है, थककर भी हूँ चूर हुआ
जाने कैसी बेचैनी थी, पल भर भी आराम न था
कम्प्यूटर भी आता उसको, फर्स्ट क्लास से पास भी है
मेहनत कर सकता है लेकिन ,उसके हाथ काम न था
दर्द बहुत था, तन्हाई भी, और उसकी याद भी थी
हमने जो भुलाना चाहा, अपने हाथ में जाम न था
चलते चले, सीढ़ी दर सीढ़ी, हम खंडहर के जीने पर
आखिर में मालूम हुआ, इस खंडहर का बाम न था
यूँ तो मुझको चाहती थी वो, मेरे मन में थी बसती
लेकिन हाथ की रेखाओं में, उस लड़की का नाम न था
तू भी रोई मैं भी रोया, किस्मत में अब रोना था
प्रेम का जो आग़ाज़ हुआ था, वैसा पर अंजाम न था
संजय नायक "शिल्प"
गाम:-गाँव
बाम:- छत, अटारी