कुछ ख़्वाब झाँक रहे होते हैं मन के दरीचों से,
कुछ ख़्वाब सिसक रहे होते हैं मन की अल्मारियों में बंद,
और हार कर ढह जाते हैं एक वक़्त के बाद,
कुछ ख़्वाब आवारा से फिरते रहते हैं मन के बाग़ीचे में,
जिनका कोई ठौर-ठिकाना नहीं होता,
कुछ ख़्वाब बड़े ही अनमोल होते हैं जो, मन की
खिड़की से निकल कर उड़ ही जाते हैं अपने हिस्से का
आसमाँ चुनने के लिए,
और फिर चुन ही लेते हैं अपने हिस्से का आसमाँ एक दिन।