जीवन का सत्य----1
आचार और विचार जीवन रुपी सिक्के के दो अहम पहलू है, एक के बिना दूसरे की कल्पना महज एक ख्याल ही हो सकता है। समय के अनुसार बाहरी आवरण में फेर-बदल होता रहता है, ये दुसरीं बात है।
मनुष्य सिर्फ समय-अवधि तक का, एक देह का अस्थायी मालिक होता है और देह उसके कर्म अनुसार सुख- दुख का अहसास करती रहती है।
देह को सिर्फ सांसारिक- नियमों का पालन करने के तहत एक काल्पनिक स्वतंत्रता दी गई है उसी अनुसार उसे सँसार में अपने अस्तित्व का बोध होता रहता है। गौर करने से ये अनुभव सहज ही हो जाता है कि जिसे हम जीवन कहते है, वो हमारा महज एक अस्तित्व-बोध ही है। शरीर की अवधि पूर्ण होने के बाद हमारे शरीर की चर्चा वक्त के साथ धूमिल हो जाती, सिर्फ हमारे अच्छे-बुरे किये कर्म के परिणामों को ही सँसार याद रखता है, क्षमता के अनुरुप।
इंसानी ताकत बेजोड़ है फिर भी इंसान समय के सामने कमजोर है, यह हकीकत है, संशय की गुंजाइश कहीं भी नहीं है। इसका भी एक कारण है, समय सृष्टि का अंग है वो प्रकृति के स्वभाव अनुसार ही चलता है।सब कुछ बदल जाता है जब समय करवटे बदलता रहता है, यहाँ तक कि इंसानी स्वभाव भी।
वर्तमान के संदर्भ पर दृष्टिगत होकर इसका मूल्यांकन करने से हम इतना चिंतन तो सहमति के साथ कर सकते है, कि इंसान कुछ भी कहे, कहीं न कहीं वो परिस्थियों का दास है। वैचारिक विभिन्नताओं के रोग से ग्रसित होने के कारण वो स्वयं के स्वार्थी चिंतनों के कारण अंदर से खोखला ही हो रहा है। अविष्कारों के अंधकारों के कारण मानव स्वयं ही खुद को खत्म करने वाले हथियारों से भय खा रहा है, ये तथ्य पुष्टि करने के लिए पर्याप्त है की हम किसी की दासता तो भोग रहे है, चाहे वो अपने गलत चिंतनों की क्यों न हो ?
✍️ कमल भंसाली