न महावीर है, न बुद्ध है
कहा मानवता का वजूद ढूंढूं
कहा करुणा का भाव देखूं ,
कहा अहिंसा का पाठ पढूं
यहा इंसान के बदलते व्यवहारों में
मैं अकेला, निसहाय , नि: शब्द हूं
कभी धरा का सुंदर प्राणी था में
आज कल भीड़ का शिकार बन चुका हूँ !
महत्वाकांक्षी, स्वार्थी के साथ चलकर
अच्छा व्यवहार भी ठुकराने लगा हूँ !
बुरा व्यवहार सहज अपनाकर ,
मैं क्या से क्या हो गया हूँ ?
निष्ठुर, निर्दयी बीच रहकर ,
पाषाण हृदय के साथ टकराकर
अंदर ही अंदर , चिल्लाता-रोता-तड़पता रहा
इंसान की अकल्पनीय करतूतें देखकर ,
सोच सोचकर, क्षण-क्षण मरने लगा हूँ ।
मैं असमर्थ, असहाय होकर
दूसरों के प्रवाह में बहने लगा हूँ !
मेरे बस में कुछ भी नहीं रहा
मेरी अच्छाइयां भी नफ़रत में जलने लगी हैं ।।
-© शेखर खराड़ी
तिथि-११/१२/२०२१