ठंडी की गुफाओ से उठने का मन नहीं करता फिर भी क्यों होती है सुबह?
चाय की सुड़किया लगाना चाहता है मन फिर भी क्यो दौड़ पर निकालता है वक्त?
आंखे चैन की नींद लेना चाहती है पर रूटीन्स जल्दी उठा ही देता है।
रूटिन करते करते कब जिन्दगी बोजर हो जाती है पता ही नहीं चलता।
कुछ नया- नया कब पुराना होकर हमे काटने लगता है, समझ नही आता।
जिम्मेदारीया बढ़ते- बढ़ते चक्र्व्युह बन जाती है और लोग कहते है, कम्फर्ट झोन से बाहर निकलो।
बहुत करता है मन, ऐसा कुछ करने का दिल कहा कर पता है।
अगर एक दिन भी रुटीन बिघड जाए तो कितना पचतावा होता है।
फिर जीने लगते है जिन्दगी, क्योकि मर नहीं सकते।
लोग कहते है हमारे जिन्दगी में मकसत ही नहीं बचा।
मैं सोचता हु, अगर हम जिन्दगी जी रहे ताकि मर नहीं सकते, तो क्यों न एक लम्बी साँस लेकर कुछ नया खोजा जाए।
शराब का गिलास आधा खाली नहीं आधा भरा देखा जाए।
चार दिवारियो से बाहर नहीं निकल सकते संतो की तरह क्या पता? दरवाजा खोल देने से ही सूरज की रौशनी पास आ जाए।
रोज वही से तो सूरज ऊपर उठता है, ऐसा भी कहेगा मन फिर तुम बोल देना पर आज तो में पहेला उठा हु न।