शीर्षक - फ़रेब के उजाले
माँ आज फिर एक त्योहार आया है
इस बार तुमने मेरे लिए क्या लाया है
मेरा मन कहता है तू कुछ तो लाई है
मै जानता हूँ तेरे हाथ में मस्त मिठाई है
माँ तू किस बात पर इतना संकुचाई है
सच बता बंद मुट्ठी में क्या क्या छिपाई है
माँ के होंठ जैसे खुद में ही सिल गए हों
उसे उम्र के सभी दर्द अभी मिल गए हों
बंद हांथो को बेटा कुछ ऐसे खोल देता है
जैसे भूख वाला बच्चा स्तन टटोल लेता है
माँ सीने से लगा कर ऐसे फुसला रही है
जैसे नदी नाव को किनारे लगा रही है
वो बोली उम्मीदों की घड़ी साथ लाई हूँ
तुझे देने मै धैर्य बस दोनों हाथ लाई हूँ
तुझे ढूंढने होंगे तारे तेरी किस्मत वाले
मत देख नकली नजारे फ़रेब के उजाले
तुझे धैर्य की मिठाई का स्वाद चखना है
आशाओं का दिया जिंदाबाद रखना है
उपहार ले पाना अपने बस की बात नहीं
पर सूरज ना निकले ऐसे भी हालात नहीं
इस दिवाली हम गगन में तारे सजायेंगे
एक ज्योति से मन तिमिर को मिटायेंगे
ज्योति प्रकाश राय
भदोही, उत्तर प्रदेश