रूठा है प्यार.., टूटा है साथ
मैं जाऊं कहा, बताऊँ कहा ??
भीतर की ये विरह व्यथा
निरंतर आग उगल रही हैं
सारे भाव निरर्थक बनकर ,
आज मेरे जिस्म में
चुर..चुर.. होकर चुभें
पीड़ा निष्ठुर बनकर ,
मन को पिटती रही
हृदय बेसुध होकर देखता रहा
व्याकुलता का बोझ लिए
अब जीना मुझे प्रतिक्षण यहां
मौत सा प्रतीत होने लगा हैं ।
-® शेखर खराड़ी (२-१-२०२१)