जीवन ताल पर थिरकती स्त्री
उत्सव और स्त्री
पर्याय हैं एक दूसरे के,
धधकते धरा पर भी
खोज लेती हैं क्षण
जीवंतता के लिए,
नृत्य के लिए।
ढोल की थाप से
थिरकने लगते हैं अंग उसके,
रग रग में बज उठता है
हृदय संगीत उसके;
उत्सव जीवन - यज्ञ है उसका,
जिसके हवन कुण्ड के
अग्नि शिखा को
प्रज्ज्वलित करती है
समिधा बन कर निशी दिन,
और पोषित करती हैं
जीवन चक्र को
अपनी उर्वरता एवम् स्वेद से;
अग्नि शिखा सम श्रृंगार करके
जब थिरकती है स्त्री,
थिरकने लगता है संसार;
प्रकृति और स्त्री
खड़ी होती हैं फिर से,
तमाम आपदाओं के बावजूद
अपने पूरे सामर्थ्य के साथ,
पुनः जीवन हंसने लगता है,
उत्सव मनाने लगता है।