बुजा सके जो आग की लपटो को
वो बारिश की बूंदे बेअसर आज भी है
रवानी है मेरे जिस्म मे तेरे एहसासो की
ये मुफ्त मे रेंगता जहर आज भी है
खैरियत पूछे जो जमाने भर की
हमसे गिला बरसो तलक आज भी है
लापता है वो शहर से मेरे जमाने से
फिर भी उसकी तलाश आज भी है
खैर लाजमी ही होगा यू मुक्कमल ना होना
सब मिलते है, ये धोखा भी तो आज भी है