वो बेइंतेहा मोहब्बत करती है हमे पता है,
बस एक वो है जो कुछ बयां कर नहीं पाती।
वो अल्फाज़ है उल्फत का बेनमून नगीना,
मुहब्बत अश्क के आंखों से गीरा नहीं पाती।
दूर से ही बयां कर देती है वो सारी हयां अपनी,
कहने लब्ज भी अपने होंठों पे ला नहीं पाती।
वो नशा है जिंदगी का या है कोई मधुशाला,
न वो होंठ लगातीं है न वो मुझे पिला पाती।
हालात ही ऐसे थे हमारे मिलन के उस वक्त,
न मैंने कभी देखी है न वो मुझे मिल पाती।
- हितेश डाभी