जीवन का सत्य
समय के साथ बेरंग सी दिखने वाली चीज़ो को भी जीवन के सत्य के रूप स्वीकार कर ली जाती है।
दिन का गतिमान रथ अब संध्या की और बढ़ रहा था। सुबह से हो रही बारिश अब शांत हो चुकी थी। तिवारी जी, जो की साठ के दशक मे थे, उनको अपना जीवन भी प्रकृति के इस सामान्य प्रक्रिया के जैसा प्रतीत हो रहा था। अपने कमरे की खिड़की से आकाश को निहारते हुए तिवारी जी अपने जवानी के दिनों मे उतर गए। जवानी के वो दिन बड़े ही सुहावने थे। तन और मन, दोनों मे ही हमेशा जोश भरा रहता था। किसी की भी हिमम्त नहीं होती थी कुछ बोलने की। बस घुमते फिरते थे एक आज़ाद पंछी की तरह। हर तरह के रंगो से महकता था उनका जीवन। लेकिन, समय ने करवट बदली और यह रंग बिरंगा सा जीवन बेरंग सा होने लगा। बहुतेरे संगी साथी अब छूटने लगे थे। बच्चों से भी रिश्ते कमजोर होने लगे थे। कभी सपने मे भी नहीं सोचा था की बुढ़ापे मे ऐसा भी एहसास होगा। खैर, किसी ने एकदम सही कहा है की- "उगते हूए सूरज को हर कोई नमन करता है, और ढलते सूरज को कोई भी नहीं। शुरूआत मे तो उन्हे असहनीय सा लगा, परन्तु, अब शायद जीवन का सत्य उन्हे अच्छी तरह से समझ मे आ गया है’’। कल्पना से बाहर निकलते ही तिवारी जी ने तुरंत अपना हारमोनियम उठाया और फिर से संगीत मे ध्यानमग्न हो गए।