(58) मजदूर की आत्मकथा
भुखाग्नी की काष्ठ के बीनते नित्य सूखे डंठल
सुखतीं टहनियां, डालें सूखे सभ्यता के जंगल
भोर की नई उम्मीदों के दरख्तों पर हस्ताक्षर
सपनों की टोकरी में जमा करते रहे नवसाक्षर
साँसों की धौकनी से निकालते रहे सभी धुआं
वर्षा-गरमी-सरदी अतृप्त क्षुधा का श्रप्त कुआं
कोमल अतिशय कोमल अति नवीनतम पैर
साश्रुनयन मूल्यांकन समीक्षा में रहे जैसे तैर,
सातवें असमान के कहीं दूर खंडहर हुए महल
चुम्बी इमारतों के पुनर्निर्माण का होगा पहल?
मजदूर प्रतीकात्मक सपनों की उदास गलियां
गंभीर करुणात्मक उर भेद खोलतीं कलियां
देश के मजदूर की अतृप्त से घिर उठीं आँखें
बरगद के तने जैसे टूटीं गहन नेतृत्व की साखें
मजदूरों तरफ नही बढ़ाएं गए कल्याणी हाथ
रास्ते पर कचरे सा हाल नही दीं सरकारें साथ,
सम्बेदनहीनता के मृदुल कर्कश के गूंजे स्वर
आँखों में अश्रु और अभिमान का नाचा नश्वर
मन के भीतर बिघलती हुई हिमालयी चट्टान
रीढ़, पसलियों, पाँव मे जैसे जम गया खून
छाती की मटमैली उष्ण छरित हो गई सब
गांव के कछार की धूप किलकारी भरे अब
मजदूर चेतना,ज्ञान,अनुभव जाग्रत हो गए
निष्कर्ष में भयाबह अंधेरे के दिन कट गए।
रचनाकार:-शिव भरोस तिवारी 'हमदर्द'
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