इंतज़ार तो बस खतम ही होने वाला था …
हमने ही और बढाया है उसको ।
क्या सोच के हमने ही खिंची है इस लंबी लकीर को।
सुकून पाना था या गवाना था इस इंतज़ार मैं ।
पहले भी हर एक लम्हे को गिनते थे उनकी याद मैं ।
अब भी यही तो करना है ।
तो फिर क्यों नामुमकिन सा लग रहा है ये अब ?
क्यों दिल अपने ही बस में नही रहा है अब ?
थोड़ा और इंतज़ार करने मैं अब उसका क्या खो रहा है ।
तसल्ली तो हम यही दे रहे है उसे की ...
बस थोड़े और लम्हे को गिनकर काटने है ।
बस फिर तो इंतज़ार खत्म ही होने वाला है।
सोच रही हु मैं खुदसे ......
" ये दिलासा किसे दे रही हु ?"
"खुदसे ही खुद को समजा रही हु !!"
Dr.Divya